Monday, February 28, 2011

गिले ज़्यादा नहीं मुझको ख़ुदा से..





फ़िकर उसको है कम, जिसको ज़माने की ख़बर कम है,
मिला ज़्यादा जिधर, उतना सबर, देखो उधर कम है..

गिले ज़्यादा नहीं मुझको ख़ुदा से, पर ज़रा समझा,
ज़ख़म हैं थोक में, तो क्यूँ भला बख़्शा जिगर कम है,

मुझे कितने भी ग़म तू दे, नहीं कुछ भी मै बोलूंगा,
मगर दे ज़िन्दगी छोटी, जो दी खुशियाँ अगर कम हैं..

हुए शैतान में तब्दील इंसां, तूने भी देखा,
बढ़ें बाक़ी बचे बेडर, बची ऐसी डगर कम है..

लहू से एक दूजे के, जमीं नापाक कर डाली,
बची है पाक बस इतनी, बनाने को कबर कम है..

ज़रूरत क्या है जंगल काटने की, घर बनाने को,
जो इनमें आ बसेंगे, फिर वही क्या जानवर कम है..

समझ उसको नहीं, लंबी यहां जो ज़िन्दगी मांगे,
वो किस्मत का धनी, ऐसे जहां, जिसकी उमर कम है..!!

6 comments:

  1. मिला जिधर जितना उतना सबर कम है, एक दम सही कहा और फिर बख्शा जिगर कम है। अच्छी रचना पर कहीं कहीं भाटकाव भी है। साधूवाद।

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  2. ज़रूरत क्या है जंगल काटने की, घर बनाने को,
    जो इनमें आ बसेंगे, फिर वही क्या जानवर कम है..
    सही प्रश्न किया आपने, बधाई

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  3. .बेहद भावपूर्ण रचना है आपकी...बधाई स्वीकारें.

    क्या सच में तुम हो???---मिथिलेश

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  4. हुए शैतान में तब्दील इंसां, तूने भी देखा,
    बढ़ें बाक़ी बचे बेडर, बची ऐसी डगर कम है..
    बिलकुल सही बात है। सुन्दर भावमय रचना। बधाई।

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  5. सभी का बहुत बहुत धन्यवाद..

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