मेला सा लगा है भेड़ों का, सब पीछे एक के जाने हैं,
पर अपना ढंग अलग है यारों, अपने अलग फसाने हैं..
ज़ख़्म नये लगते हैं मेरे, कहते हैं सब दवा करो,
कैसे उन्हे बतायें ये कि, अपने दर्द पुराने हैं..
रोने से मन हल्का होता होगा सारी दुनिया का,
हमको तो आँखों के आँसू, थोड़े और सुखाने हैं..
दर्द भरे नगमे कुछ गाके, सुनके प्रेम के गीतों को,
वक़्त गुज़ारा करते थे, अब लिखते अलग तराने हैं..
सब कहते हैं, खाली-बैठे ना समय को यूँ बर्बाद करो,
हम कहते हैं की शायर कम हैं, थोड़े और बनाने हैं..
* और ये पंक्तियाँ अपने दिलीप सरजी को समर्पित करता हूँ..
खुद को चोट लगे तो यारों जीव सभी रो पड़ते हैं,
आदम बन औरों के आँसू, अपनी आँख बहाने हैं..
पानी के छींटों से ठंडी, हो-जाए वो आग नही,
लहू बहाओ कुछ यारों, अंगारे अलग बुझाने हैं..
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