हित देश कभी गर बात चले, तो कहते सबसे ज़्यादा हैं,
हो जेब अगर अपनी भरनी, तो करते सबसे ज़्यादा हैं..
कहीं नेता करता है नीति, कहीं व्यापारी व्यापार करे,
मुँह तो पूरा ही खुलता है, बस दिल ही सबमें आधा है..
काणे को राज थमा के सब, बन अंधे पीछे चलते हैं,
मेहनत की चाह भले कम हो, आरक्षण की ज़िद ज़्यादा है..
कोई मरे कहीं या कोई जिये, अब किसकी-किसकी सोचेंगे,
बस अपना उल्लू सीधा हो, ये इनका नेक इरादा है..
प्रदेश हरित, कहीं झारखंड कहीं उत्तरांचल तेलंगाना,
कुछ अंग अभी हैं संग बचे, अभी एका थोड़ा ज़्यादा है..
जो कहते थे अंग्रेज़ों ने भारत के टुकड़े कर डाले
अब माँ के हिस्से करने पर, देखो ख़ुद ही आमादा हैं..
काणे को राज थमा के सब, बन अंधे पीछे चलते हैं,
ReplyDeleteमेहनत की चाह भले कम हो, आरक्षण की ज़िद ज़्यादा है..
वाह...वाह...वाह...
क्या बात कही है आपने....
जलते दिल जैसे ठंडक पा गया आपकी इस रचना को पढ़...
बहुत ही सार्थक सुन्दर लिखा है आपने...विसंगतियों पर करारा चोट किया है...
साधुवाद !!!
कोई मरे कहीं या कोई जिये, अब किसकी-किसकी सोचेंगे,
ReplyDeleteबस अपना उल्लू सीधा हो, ये इनका नेक इरादा है..wah....wah.....wah........
आप सभी का बहुत बहुत शुक्रिया..
ReplyDeletewah, kya khoob likha! bahut achcha!
ReplyDeleteDhanyawad anjana..
ReplyDeleteGreat read thhank you
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