Monday, November 28, 2011

यही तो चाहता था मैं..


यही तो चाहता था मैं..
यही तो चाहता था मैं, वो मुझसे दूर रह पाए,
मैं उसको भूल ना पाऊं, उसे मेरी याद ना आए,
वो मुझको भूल बैठी है, वो खुश है आज बिन मेरे,
यही तो चाहता था मैं, तो फिर सांसें जमी क्यूं है...

यही तो चाहता था मैं..
यही तो चाहता था मैं, मुझे दिल से मिटा दे वो,
जो लम्हे संग थे ग़ुज़रे, ज़हन से सब हटा दे वो,
नहीं नाम-ओ-निशां मेरा, वो खुश है आज बिन मेरे,
यही तो चाहता था मैं, तो फिर इतनी कमी क्यूं है...

यही तो चाहता था मैं..
यही तो चाहता था मैं, मेरे बिन सीख ले जीना,
ना रखे आस कंधे की, वो आंसू सीख ले पीना,
हंसी उसके लबों पर है, वो खुश है आज बिन मेरे,
यही तो चाहता था मैं, तो आँखों में नमी क्यूं है...

यही तो चाहता था मैं..
यही तो चाहता था मैं, वो दिल अपना खुला रखे,
कोई मेरे सिवा भाए, तो ना दिल में गिला रखे,
बसा कर और को दिल में, वो खुश है आज बिन मेरे,
यही तो चाहता था मैं, तो ये धड़क
 थमी क्यूं है...
मेरी धड़कन थमी क्यूं हैं..

Wednesday, November 23, 2011

दर्द लफ़्ज़ों में बयां करता हूँ..



मैं-इश्क़ बे-पनाह करता हूँ,
कोई पूछे तो-मना करता हूँ,
आह बातों में छुपा लेता हूँ,
दर्द लफ़्ज़ों में-बयां करता हूँ..

मैं उसकी एक झलक की ख़ातिर,
ना पूछ कितनी दुआ करता हूँ,
वो जिस गली से कभी गुज़री थी,
वहीं कदमों के निशां करता हूँ..

उसकी कसमों को निभाने के लिये,
रोज़ ख़ुद से मैं दग़ा करता हूँ,
वो रहे पास या हो दूर कहीं,
वफ़ा करता था, वफ़ा करता हूँ..

लो आँख बंद की, वो आई नज़र,
यूं फ़ासलों को फना करता हूं,
इश्क़ को साथ ज़रूरी तो नहीं,
साथ करता था, जुदा करता हूं,

आएगी फिर से मेरी किस्मत में,
यही उम्मीद सदा करता हूँ,
वक़्त को तेज़ चलाने के लिये,
चाँद-सूरज को हवा करता हूँ..

कभी जो ऊबता हूँ जीने से,
चंद ज़ख्मों को हरा करता हूँ,
उसकी यादें मिला के सांसों में,
दवा सा फूंक, भरा करता हूँ..

जो उसको बेव़फा बताते हैं,
उन्हे दर से ही दफ़ा करता हूँ,
मैं जानता हूँ उसकी जान हूँ मैं,
उसकी धड़कन में बसा करता हूँ..


Tuesday, November 22, 2011

इतना भी मैं 'घायल' नहीं हूँ..



मैं तूफ़ां हूँ जले दिल का, कोई बादल नहीं हूँ,
कफ़न हूँ इश्क़ का मैं, माँ का मैं आँचल नहीं हूँ..

दग़ा देकर मुझे, आगे मेरे मासूम ना बन,
ये माना इश्क़ में पागल-हूँ-मैं, पागल नहीं हूँ..

भुलाने में मुझे लग जाएगी ता-उम्र तेरी,
गुज़र जाए जो पल भर में, के मैं वो पल नहीं हूँ..

कभी रस्ते में ग़र मिल जाऊं, तो बचके ग़ुज़रना,
बवंडर बन गया हूँ, अब ज़रा हलचल नहीं हूँ..

सहारे की ना मुझसे अब कभी उम्मीद रखना,
मैं ख़ुद मुश्किल हूँ तेरी, मुश्किलों का हल नहीं हूँ..

कोई जब तोड़ दे दिल, तो ना मेरे पास आना,
तू मेरा कल थी, लेकिन अब मैं तेरा कल नहीं हूँ..

तेरे हर वार का बदला मैं तुझसे गिन के लूंगा,
ज़ख़्म कितने भी हों, इतना भी मैं 'घायल' नहीं हूँ..


Saturday, November 19, 2011

फिर से जाम मैं उठाऊंगा...


फिर से जाम मैं उठाऊंगा,
फिर सिगरेट ज़रा जलाऊंगा,
तमाशा फिर बनेगा दुनिया में,
आग से आग मैं बुझाऊंगा..
फिर से जाम मैं...

फिर तेरी याद चली आएगी,
मेरी झूठी हंसी भी जाएगी,
तमाशा फिर बनेगा दुनिया में,
ख़ून आँखों से मैं बहाऊंगा..
फिर से जाम मैं...

फिर ख़ुद से करूंगा वादे मैं,
तुझे भुलाने के इरादे मैं,
तमाशा फिर बनेगा दुनिया में,
सुबह को सब मैं भूल जाऊंगा..
फिर से जाम मैं..

दर्द फिर हद से गुज़र जाएगा,
हाल-ए-दिल, दिल में ना रह पाएगा,
तमाशा फिर बनेगा दुनिया में,
ख़त लिख-लिख के मैं मिटाऊंगा..

फिर से जाम मैं उठाऊंगा..
फिर से जाम मैं उठाऊंगा..

Thursday, November 17, 2011

क़लम ख़ामोश है..



क़लम ख़ामोश है, कुछ लफ़्ज़ भी नाराज़ बैठे हैं,
ना जाने क्या लिये दिल में, मेरे अल्फाज़ बैठे हैं,
सुबह होने को है, काग़ज़ मग़र कोरा का कोरा है,
ख़यालों के परिंदे, आज बे-परवाज़ बैठे हैं..

ये कोशिश है, के जो लिखूं, कोई ताज़ा तराना हो,
नई सी बात हो कोई, नया कोई फ़साना हो,
नए ज़ख़्मों की ख़ातिर, है बची बाक़ी जगह थोड़ी,
जो हैं उनको भुलाकर, और खाने का बहाना हो..

लो फिर दिल हो चला भारी, उभर कुछ याद आई हैं,
निगाहें भी हुई नम सी, बड़ी मुश्क़िल छुपाई हैं,
नया लिखने को था बैठा, पुराना ही मग़र किस्सा,
के भीगी सी सियाही ने, लकीरें सी बनाई हैं..

"ना कोई एक भी छलके, अदा हो अश्क़ पीने में,
पियाला दिल का भर जाए, मज़ा तब आए जीने में,
जो आँखों से बहे, पानी है वो, आँसू तो बस वो है,
कलम से जो बहे, बस जाए जो काग़ज़ के सीने में.."



Wednesday, November 16, 2011

रात ये कटे कैसे..



है-दिल-में-आग, धुआं आँख से छटे कैसे,
थमा है-वक़्त, आज रात ये कटे कैसे..

ना जाने कब से चाँद, एक जगह ठहरा है,
मैं तारे कैसे गिनूं, बादलों का पहरा है,
कोई भी शोर नहीं, ध्यान ही बटे कैसे,
थमा है वक़्त, आज रात ये कटे कैसे..

कोई जुगनूं भी नहीं दूर तक नज़र आता,
है एक तन्हाई, दूसरा है सन्नाटा,
है होड़ दोनो में, पीछे इक हटे कैसे,
थमा है वक़्त, आज रात ये कटे कैसे..

कोई तो आए, कहीं से भी हो ज़माने में,
हो वो अन्जाने में, या मेरे पहचाने में,
ना मुझसे पूछ, ढूंढता हूं आहटें कैसे,
थमा है वक़्त, आज रात ये कटे कैसे..

है बस उम्मीद यही, ग़र मेरा सपना होगा,
तो जल्द टूट जाएगा, नहीं अपना होगा,
है डर के सच ना हो ये, बदलूं करवटें कैसे,
थमा है वक़्त, आज रात ये कटे कैसे..

है दिल में आग, धुआं आँख से हटे कैसे,
थमा है वक़्त, आज रात ये कटे कैसे..


Tuesday, November 15, 2011

ये सच नहीं, के मोहब्बत ये बस इक बार है मुमकिन..


ये-सच-नहीं, के-मोहब्बत ये-बस-इक-बार-है-मुमकिन,
ना-झूठ ये के-फिर-ना अब किसी से-प्यार-है-मुमकिन,
ना-ऐसा ही, के-मैं-तौबा ही-कर गया हूं इश्क़ से,
ना यूं ही-है, के-फिर किसी पे ऐतबार-है-मुमकिन..

सभी को है ख़बर, ना-सहरा में बहार है मुमकिन,
ना ठेस पहुंचा हुआ दिल-ही बे-दरार है मुमकिन,
मग़र करूं, तो-क्या शिक़वा करूं मैं अपनी समझ से,
हो जिसको इश्क़, भला कैसे होशियार है मुमकिन,

ना भूलता है वो भूले, ना यादगार है मुमकिन,
मेरी यादों पे वो लम्हा, बड़ा दुश्वार है मुमकिन,
है ये मालूम, के वो बेवफ़ा, था बेवफ़ा लेकिन,
ना कहना, उस हसीं-ग़द्दार को ग़द्दार, है मुमकिन..

कभी लगता है, अब-भी थोड़ा इंतज़ार है मुमकिन,
ज़रा दीदार, या इज़हार, या इक़रार है मुमकिन,
हज़ारो कोशिशें की, मर्ज़ मेरा दूर हो, लेकिन,
कहीं बाक़ी अभी-भी, थोड़ा सा बुख़ार, है मुमकिन,

के जैसे बिन पिये कभी-कभी, ख़ुमार है मुमकिन
हाँ वैसे ही, बिना-दर दिल-की-भी दीवार है मुमकिन,
जो ना समझे शुमार हार, कभी हश्र-ए-इश्क़ में,
उसे बेकार इक मज़ार बिन दीवार, है मुमकिन..

ये माना, मुश्किलों से मंज़िल-इख़्तियार है मुमकिन,
मगर इस इश्क़ की राहों में बस गुबार है मुमकिन,
वहाँ ना दिल के बदले दिल की रख उम्मीद तू 'घायल'
जहाँ के इश्क़ का, हर मोड़ पे बाज़ार है मुमकिन..

Friday, November 11, 2011

शुक्र है.. शुक्रवार है..#25


ये दिन ऐसा, के जब आता है तब त्योहार होता है,
इसी की राह तकते, पूरा हफ़्ता पार होता है,
ये ना होता अगर, तो है कसम, के जी ना पाते हम,
खुदा का शुक्र है, दुनिया में शुक्रवार होता है..

Monday, November 7, 2011

कुछ भी नहीं..


हो-कोई बात, कुछ-भी-हो, तो-बात कुछ-भी-नहीं,
है-मुसीबत तो-यही बस, के-बात कुछ-भी-नहीं..

कभी लगती है जहन्नुम, कभी जन्नत लेकिन,
सहर का इंतज़ार है ये रात, कुछ भी नहीं..

यूं तो मिलने को रोज़, कितने लोग मिलते हैं,
ना मिलें दिल, तो बस है वारदात, कुछ भी नहीं..

तू घर में हो दाख़िल, जैसे हुआ था दिल में,
ना दर पे दस्तक दे, एहतियात कुछ भी नहीं..

तू अपनी बात कर, ना मुझसे पूछ हाल मेरा,
वजूद ही नहीं जिसका, हालात कुछ भी नहीं..

मैं तो डूबा हूं गुनाहों में सर से पांव, मग़र,
नहीं ऐसा, के तुझपे इल्ज़ामात कुछ भी नहीं..

मज़ा तो तब है, जब के मार के रोए क़ातिल,
नहीं तो क्या हयात, क्या वफ़ात, कुछ भी नहीं..

जो मेरे हाथ से गया, नहीं ग़म है उसका,
सदा रहता नहीं कुछ भी, सबात कुछ भी नहीं..

यूं हर इक हार को, धुंए में उड़ाया 'घायल',
जो मान लूं तो है, नहीं, तो मात कुछ भी नहीं..

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वारदात -- Events/Occurences एहतियात -- Caution
हयात – Life वफ़ात -- Death
सबात -- Stability/Constancy
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Friday, November 4, 2011

शुक्र है..शुक्रवार है..#24


किए पुर्जे दिल के, ग़म के कारखाने ने,
उठा उठा के पटका, रूह को ज़माने ने,
नहीं पीता अगर, तो कब का मर गया होता,
मुझे ज़िंदा है रखा, मय ने ओ मयखाने ने..