Monday, February 14, 2011

ज़माने हो गये..



क्या शिकवा करें किसी और से बेरुख़ी का हम,
किये अपने ही दिल से गुफ़्तगू, ज़माने हो गये..

यूँ ज़्यादा किसी से ताल्लुक पहले भी नही था,
ये ना इल्म था, खुदसे भी अब बेग़ाने हो गये..

अधूरी आरज़ू पे हम कभी आँखें सुजाते थे,
कोई ख्वाहिश नई दिल में पले ज़माने हो गये..

कभी जो आँखो मे ही पढ़ लिया करते थे हाल-ए-दिल,
मुश्किल, हाल लफ्ज़ों में, उन्हे समझाने हो गये..

उनके छोड़ जाने का हमें यूँ फायदा पहुँचा,
किसी की राह देखे अब हमें ज़माने हो गये..

ज़रा सी आह पर जिनकी हमेशा दौड़ जाते थे,
हुए हम क्या ज़रा घायल, उन्हे अनजाने हो गये..

जहाँ की लोग रौनक देख कर किस्से सुनाते थे,
उसी घर मे, लगे जाले हटे, ज़माने हो गये..

ग़ज़ल कभी शेर लिखते हैं उन्हे भूल जाने को,
ये भी याद उनकी आने के बहाने हो गये..

कभी बस महफ़िलों में जाम कहने पर उठाते थे,
हमें अब होश में आए हुए ज़माने हो गये..

9 comments:

  1. बहुत ही अच्छी प्रस्तुती ये ग़ज़ल मन को भा गया !!!

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  2. Bahut bahut dhanyawaad Sirji..
    Chhutti lekar ghar gaya hua tha .. shaamil nahi ho paaya halchal mein.. maafi chaahta hun

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