इक बार हुआ यूँ-की, हमें एहसास-ए-ग़म हुआ,
हुमको ख़ुदा तब याद आया, उस-रुख़ कदम हुआ,
पहुँचे सामने रब के, सीना चौड़ा किया हमने,
ली एक साँस लंबी सी और कुछ यूँ कहा हमने,
ए ख़ुदा दिया सबको सब, मुझे कुछ ना दिया तूने,
मुझको फलक की झलक नही, सबको दिया छूने,
मेरा क्या गुनाह था, मेरी हर मेहनत गयी ज़ाया,
ऐसा क्या किया जो मेरे हिस्से ग़म ही ग़म आया,
मुझे जो मिली उस राह पर पत्थर ही पत्थर थे,
क्यूँ मेरी ही तक़दीर में नश्तर ही नश्तर थे,
इतना मिला है ग़म कि कम एहसास होता है,
जिससे भी लगाऊं दिल, उसे कोई ख़ास होता है,
नाशाद लम्हे झील जैसे थम के रहते हैं,
लम्हे हसीं मानो हवा से तेज़ बहते हैं,
या दे ख़ुशी या ग़म को ही पीना सीखा दे तू,
या रोक दे साँसें या फिर जीना सिखा दे तू,
उम्मीद ये थी, वो ख़ुदा है कुछ तो पिघलेगा,
ये तो ज़रा ना थी वो ख़ुद ग़मगीन निकलेगा,
चुप-चाप सुन बातें मेरी धीरे से मुस्काया,
ख़ुदा तो फिर ख़ुदा है देखिए क्या उसने फ़रमाया,
कायनात का हर टुकड़ा बड़े दिल से सजाया था,
बराबर ज़िंदगी-ज़र्रे पे सब कुछ ही लुटाया था,
पर इंसान को मैं दिल के सबसे पास रखता था,
कभी तू दगा ना देगा ये विश्वास रखता था,
समझ दी, जो ख़ुद अपनी सभी तू राहें चुन पाए,
ताक़त दी, फलक से ऊँची जो तक़दीर बुन जाए,
पर ग़म का सबब तेरे लिए हैं और की खुशियाँ,
बुझाती प्यास तेरी हैं तो बस ये ख़ून की नदियाँ,
बनाके तुझको, अपना अक्स तुझमे खोजता था मैं,
ज़मीं को मेरी, जन्नत तू करेगा सोचता था मैं,
मेरी चाह जिसकी थी वो महफ़िल सज नहीं पाई,
बची शैतान से, इंसान से पर बच नहीं पाई,
आबाद की दुनिया मेरी बर्बाद करता है,
ईनाम की फ़िर मुझसे ही फ़रियाद करता है,
मैं ख़ुद ख़ुदा हूँ, अपना ग़म मैं किसको बतलाऊं,
तू दर पे आया है मेरे, पर मैं कहाँ जाऊं...??
मैं कहाँ जाऊं...??