Monday, February 28, 2011

गिले ज़्यादा नहीं मुझको ख़ुदा से..





फ़िकर उसको है कम, जिसको ज़माने की ख़बर कम है,
मिला ज़्यादा जिधर, उतना सबर, देखो उधर कम है..

गिले ज़्यादा नहीं मुझको ख़ुदा से, पर ज़रा समझा,
ज़ख़म हैं थोक में, तो क्यूँ भला बख़्शा जिगर कम है,

मुझे कितने भी ग़म तू दे, नहीं कुछ भी मै बोलूंगा,
मगर दे ज़िन्दगी छोटी, जो दी खुशियाँ अगर कम हैं..

हुए शैतान में तब्दील इंसां, तूने भी देखा,
बढ़ें बाक़ी बचे बेडर, बची ऐसी डगर कम है..

लहू से एक दूजे के, जमीं नापाक कर डाली,
बची है पाक बस इतनी, बनाने को कबर कम है..

ज़रूरत क्या है जंगल काटने की, घर बनाने को,
जो इनमें आ बसेंगे, फिर वही क्या जानवर कम है..

समझ उसको नहीं, लंबी यहां जो ज़िन्दगी मांगे,
वो किस्मत का धनी, ऐसे जहां, जिसकी उमर कम है..!!

Friday, February 25, 2011

हर मोड़ पर दो राह मिलती हैं..


कभी मिलती हैं मांगे से, कभी बिन चाह मिलती हैं,
अजब है ज़िन्दगी, हर मोड़ पर दो राह मिलती हैं..

चलूं गर राह पर दिल की, तो मिलती ठोकरें हर दम,
बढ़ाऊं होश से कदमों को, तो-भी है मिले बस ग़म,
जलाकर रूह को, दिल से निकलती आह चलती हैं,
अजब है ज़िन्दगी, हर मोड़ पर दो राह मिलती हैं..

मोहब्बत उनसे करते हैं, बड़ी मुश्किल से बतलाया,
सुना इनकार जो, दिल को बड़ी मुश्किल से समझाया,
मगर उन ही से टकराती, मेरी हर राह चलती है,
अजब है ज़िन्दगी, हर मोड़ पर दो राह मिलती हैं..

ज़रूरत से कभी दे ज़्यादा, वो विश्वास देता है,
कभी बस भूख देता है, उबलती प्यास देता है,
बढ़ाऊं या मैं रोकूं, जो दुआ में बांह चलती हैं..
अजब है ज़िन्दगी, हर मोड़ पर दो राह मिलती हैं..

मान जब हार लेता हूं, तभी उम्मीद दिखती है,
कई रमज़ान गुज़रें साथ, तब इक ईद दिखती है,
मनाऊँ मौत को तो, जीने की फिर चाह पलती है,
अजब है ज़िन्दगी, हर मोड़ पर दो राह मिलती हैं..

कभी मिलती हैं मांगे से, कभी बिन चाह मिलती हैं,
अजब है ज़िन्दगी, हर मोड़ पर दो राह मिलती हैं..

Wednesday, February 23, 2011

इंसान की दुम...

सुना था फैसला जन्नत का, मरने बाद होता है,
ना जाने मैं मरा हूं या नहीं, पर ये जहन्नुम है.. 


अगर जीना यही है तो ख़ुदा, बहकाया मुझको क्यूँ,
बड़ा कहता था दुनिया में, तबस्सुम-ओ-तरन्नुम हैं..

जो आता है यहाँ हर पल, तड़पता और रोता है,
यही दुनिया है तेरी तो, वो सारे सुख कहाँ गुम हैं..

इन्ही के बीच रहना था, दरिंदा मैं भी बन आता,
दिखा इंसान कोई, ना दिखी इंसान की दुम है..

Tuesday, February 22, 2011

फ़ितरत-ए-इंसां..


पाता है ना खोता है, ग़म-ए-उल्फ़त ही ढोता है,
वहां उम्मीद फूलों की, जहां काँटों को बोता है,
हुई पहली दुआ पूरी कि दूजी आ गई दिल में,
जिसे पाने को तड़पा था, उसे पाके भी रोता है..

Monday, February 21, 2011

चबाता फिर नज़र इंसान को इंसान आया है..

सही थे रास्ते, तो क्यूँ, गलत अंजाम आया है,
भरम लगता है, लब पे जो, ख़ुदा का नाम आया है..

दुआ उसको भी दी, जिसने, बना अपना मुझे लूटा,
तो फिर क्यूँ नाम, दुनिया में, मेरा बदनाम आया है..

जो हमको सीख देते थे पराई पीर हरने की,
बिना कंधे जनाज़ा, कल ही उनका शाम आया है..

अभी तक थे फ़िज़ूली में, पशेमां और परेशां हम,
शुरू जीना किया तो मौत का फरमान आया है..

भला ही है, निकल जल्दी चलें ऐसे जहाँ से हम,
नहीं आता समझ किस भेस में शैतान आया है..

गलत कहते हैं कि, बाकी बचे हैं जानवर कुछ ही,
चबाता फिर नज़र इंसान को इंसान आया है..!!


* पशेमां होना - पछ्तावा करना

Sunday, February 20, 2011

घर है राख होता..

घुमाएं गर नज़र हालात पर दिखता समां क्या है,
ज़रा दिल को सुकूं जो दे सके, ऐसा यहाँ क्या है..


धरम-मज़हब का सब ले नाम,बैठे हैं बने दुश्मन,
सभी ग्रंथों में, गीता में, क़ुरानों में लिखा क्या है..


अगर वादे ना दे झूठे, ना लूटे देश को हर पल,
जो ना चाहे अलग टुकड़ा, वो नेता ही भला क्या है..


है दी बेईमान को ताकत, तो निर्बल साफ-दिल सब ही,
ख़ुदा से ही करें शिकवा, तो फिर इसमें गिला क्या है..


भलाई को उठी आवाज़, बस दबती कुचलती है,
ना सच्ची भी हो गर पूरी, दुआ का फायदा क्या है..


मगर डर के ना बैठो चुप, उठो आगे बढ़ो यारों..
रुके अंजाम से पहले, तो उस आग़ाज़ का क्या है..


के अपने हैं नहीं जिनके, उन्हे अपना बनाओ तुम,
गंवां दी पेट बस भरते हुये, वो जाँ भला क्या है..


जवानी दी लुटा गर इश्क़ पर, तो फ़क्र क्या करना,
जो कट ना पाए ख़ातिर देश की, वो सर भला क्या है..


सुलगती आग नीचे, हो भले पानी, उबलता है,
ये घर है राख होता, हो गरम ना, वो लहू क्या है..!!

Saturday, February 19, 2011

प्यार तू वो बन..

दिलको जो धड़कन दे मेरे, कोई बात तू वो बन,
ना बात का बस, हो मुकम्मल, साथ तू वो बन..


बरसों से धोखा खाते आए, मन मेरा और मैं,
जो रात में भी साथ दे, परछाई तू वो बन..


हैं पैर तो छोटे, मगर चादर सिकुड़ती है,
आशाओं के पर खोल दे, महताब तू वो बन..


करते रहे औरों पे तो, ख़ुद पे यकीं टूटा,
मुझमे जो वापस दे यकीं, हमराज़ तू वो बन..


बन यार मेरे सामने, पीछे से है लूटा,
जो ख़ैर को मेरी चले, तलवार तू वो बन..


ये छेद मेरी नाव के, गिनते नही बनते,
तूफां से ख़ुद जो पार दे, मझधार तू वो बन..


मुश्किल लगे कुछ गर, तो मुझको छोड़ दे जा तू,
दिल से किसी, नफ़रत मिटाए, प्यार तू वो बन.. !!

Friday, February 18, 2011

सच्चा सोना..


फिर आई उबासी, पलकों पे फिर भारीपन सा छाया है,
आज तो पूरा घंटा हमने, जगते हुये बिताया है,
रुक गये कदम गद्-दे को देखा जो नयनों ने चोरी से,
अंग रज़ाई के भी दिखते हैं कोमल इक गोरी से,
लेट पलंग पे लगता है कि मोक्ष सा हमने पाया है,
पापी धूप ने बापू का फिर डंडा याद दिलाया है,
खड़े हुये जो बिस्तर से, आँखों मे कुछ आसूं आए,
मुश्किल से फिर छुपके से दो चार कदम थे रख पाए,
नींद हमें बाहों में लेकर, कान में यूं फरमाती है,
जानू मुझसे दूर ना जाओ, याद तुम्हारी आती है,
प्रेम भी इतना करते हैं, दुख देख ना उसका पाते हैं,
ले आगोश में अपने उसको, स्वप्न लोक दिखलाते हैं,
पर प्रेम कहां इन दुनिया वालो की आँखो को जचता है,
मां कभी तो बापू के हाथों से ढोल गाल पे बजता है,
मुझसे मेरा प्यार छीनकर मुझको ये समझाते हैं,
सोने वाले खोते हैं और जागने वाले पाते हैं,
'गीता' की कुछ पंक्ती मेरी याद में वापस आती हैं,
दोहराता हूँ दोहा अपना, माँ झाड़ू ले आती हैं,

"कुछ उसका था ना तेरा है, कुछ पाना है ना खोना है,
चादर तानो वत्स ये जानो, सोना सच्चा सोना है.. !!"

Thursday, February 17, 2011

झूठा सच..


हाँ सीखा था हमने, सच से, सब आसां होता है,
नहीं मिलता कुछ भी झूठ से, बस फांसा होता है ,
दिल सच्चा हो तो दुनिया भर में नाम दिलाता है,
दिखता कड़वा है पर भीतर मिस्री ही मिलाता है,
सच मान ये सब, राहों पे चलना हमनें शुरू किया,
राहों से डिगे ना अपनी और ना ख़त्म ही जुनूं किया,
हर मोड़ पे सच के साथी कुछ तो मिल ही ते थे,
सौ झूठ बाद भी मिलता सच, दिल खिल ही जाते थे,
धीरे से मगर ये कारवां, छोटा ही होता गया,
हर कोई करके एक-एक बस झूठ ही बोता गया,
कभी सब ही केवल सच का ही बस साथ निभाते थे,
जो मुड़के देखा आज तो इक हम तन्हा आते थे,
इक आस लिये मन में फिर सच को वापस लाने की,
उस राह चले हम जहाँ चाह तो थी ना जाने की,
कुछ मिले पुराने साथी, हैरां करते आलम में,
देखा तो झूठ ही बहता था, हर रग हर धड़कन में,
सच राह पे लाने की मेरी हर कोशिश हार गई,
जो लड़ता झूठ से उसको आज की दुनिया मार गई,
फिर सोचा झूठ के 'आदि' हैं, सच समझ ना पाएंगे,
अब झूठ से ही हम इनको सच की राह दिखाएंगे,
हम भी ख़ातिर फिर काम नेक की झूठे बन बैठे,
झूठों की टोली के फिर हम बन राजा तन बैठे,
बरसों सच की ठोकर खाकर हम इस दर आए थे,
धीरे-धीरे हमको भी झूठ के साधन भाए थे,
इस झूठ सा मीठा और भला दुनिया में क्या होगा,
ना सच से कड़वा और कोई, ना और बुरा होगा,
सच ने सालों तक हमको बस दर-दर भटकाया है,
अब झूठ ही मेरा अल्लाह ईसा और सरमाया है,
ये बाहर से मीठा तो अंदर और भी मीठा है,
दिल झूठा हो जिसका, वो ही आराम से जीता है,
बस झूठ सुकूं देता है झूठ ही काम बनाता है,
सच से सब मुश्किल, झूठ से सब आसां हो जाता है...!!


कोने में दिल के फिर सच्चा होने की चाहत है,
आवाज़ दबी सी है बाकी, कोई बाकी आहट है..!!

Tuesday, February 15, 2011

भारत के टुकड़े...


हित देश कभी गर बात चले, तो कहते सबसे ज़्यादा हैं,
हो जेब अगर अपनी भरनी, तो करते सबसे ज़्यादा हैं..

कहीं नेता करता है नीति, कहीं व्यापारी व्यापार करे,
मुँह तो पूरा ही खुलता है, बस दिल ही सबमें आधा है..

काणे को राज थमा के सब, बन अंधे पीछे चलते हैं,
मेहनत की चाह भले कम हो, आरक्षण की ज़िद ज़्यादा है..

कोई मरे कहीं या कोई जिये, अब किसकी-किसकी सोचेंगे,
बस अपना उल्लू सीधा हो, ये इनका नेक इरादा है..

प्रदेश हरित, कहीं झारखंड कहीं उत्तरांचल तेलंगाना,
कुछ अंग अभी हैं संग बचे, अभी एका थोड़ा ज़्यादा है..

जो कहते थे अंग्रेज़ों ने भारत के टुकड़े कर डाले
अब माँ के हिस्से करने पर, देखो ख़ुद ही आमादा हैं..

Monday, February 14, 2011

ज़माने हो गये..



क्या शिकवा करें किसी और से बेरुख़ी का हम,
किये अपने ही दिल से गुफ़्तगू, ज़माने हो गये..

यूँ ज़्यादा किसी से ताल्लुक पहले भी नही था,
ये ना इल्म था, खुदसे भी अब बेग़ाने हो गये..

अधूरी आरज़ू पे हम कभी आँखें सुजाते थे,
कोई ख्वाहिश नई दिल में पले ज़माने हो गये..

कभी जो आँखो मे ही पढ़ लिया करते थे हाल-ए-दिल,
मुश्किल, हाल लफ्ज़ों में, उन्हे समझाने हो गये..

उनके छोड़ जाने का हमें यूँ फायदा पहुँचा,
किसी की राह देखे अब हमें ज़माने हो गये..

ज़रा सी आह पर जिनकी हमेशा दौड़ जाते थे,
हुए हम क्या ज़रा घायल, उन्हे अनजाने हो गये..

जहाँ की लोग रौनक देख कर किस्से सुनाते थे,
उसी घर मे, लगे जाले हटे, ज़माने हो गये..

ग़ज़ल कभी शेर लिखते हैं उन्हे भूल जाने को,
ये भी याद उनकी आने के बहाने हो गये..

कभी बस महफ़िलों में जाम कहने पर उठाते थे,
हमें अब होश में आए हुए ज़माने हो गये..

Sunday, February 13, 2011

वादा..


उसी दोराहे पे बैठा हूँ जिसपे कह गई थी तुम,
पलक झपके से पहले आऊंगी ये वादा है मेरा..

कभी पानी बहाती हैं, कभी खुदको सुजाती हैं,
बड़ी कोशिश में हैं आँखे कि अब टूटे भरम मेरा..

पहले लौटने की बात समझाते थे सब ही पर,
वो भी मान बैठे हैं कि अब ये ही है घर मेरा..

अब तो धूल भी कदमों से मेरे खौफ खाती है,
इतनी दफ़ा ज़र्रे से हर, पूछा पता तेरा..

तुम्हारे हाथ पीले होने की भी लो खबर आई,
और टूटा ग़ुमा कि इश्क लाएगा असर मेरा..

फूल पहले भी खिलते थे जहाँ तुम पाँव रखती थी,
बसाया है कहीं जो गुल अलग, उजड़ा चमन मेरा..

मनाओ होली-दीवाली मगर एहसास ये रखना,
लहू थमता हुआ है और अंधेरा आशियाँ मेरा..

अभी कुछ याद बाक़ी हैं, उन्ही पे सांस लेता हूँ,
माना तूने था मुझसा नहीं आशिक़ हुआ तेरा..

उसी दोराहे पे बैठा हूँ जिसपे कह गई थी तुम,
पलक झपके से पहले आऊंगी ये वादा है मेरा..

अपने अलग फसाने हैं..


मेला सा लगा है भेड़ों का, सब पीछे एक के जाने हैं,
पर अपना ढंग अलग है यारों, अपने अलग फसाने हैं..

ज़ख़्म नये लगते हैं मेरे, कहते हैं सब दवा करो,
कैसे उन्हे बतायें ये कि, अपने दर्द पुराने हैं..

रोने से मन हल्का होता होगा सारी दुनिया का,
हमको तो आँखों के आँसू, थोड़े और सुखाने हैं..

दर्द भरे नगमे कुछ गाके, सुनके प्रेम के गीतों को,
वक़्त गुज़ारा करते थे, अब लिखते अलग तराने हैं..

सब कहते हैं, खाली-बैठे ना समय को यूँ बर्बाद करो,
हम कहते हैं की शायर कम हैं, थोड़े और बनाने हैं..


* और ये पंक्तियाँ अपने दिलीप सरजी को समर्पित करता हूँ..


खुद को चोट लगे तो यारों जीव सभी रो पड़ते हैं,
आदम बन औरों के आँसू, अपनी आँख बहाने हैं..

पानी के छींटों से ठंडी, हो-जाए वो आग नही,
लहू बहाओ कुछ यारों, अंगारे अलग बुझाने हैं..

Friday, February 11, 2011

तू कोशिश करता चल.



खुशियाँ सारी पाने की, रख आस तू कोशिश करता चल,
जब तक बाकी साँस रहे, हर साँस पे कोशिश करता चल..

ना राह कठिन हो अगर मुसाफ़िर, खाक मज़ा है चलने में,
कांटो पर हँसकर बढ़ने की, बेबाक तू कोशिश करता चल..

दिल अगर कभी जो तुझको फुसलाने की साज़िश कर बैठे,
उल्टा उसको बहलाने की, बस पाक तू कोशिश करता चल..

सौ ज़ख़्म सही, सौ दर्द सही, कुछ तो मोती भी बिखरेंगे,
झोली फैलाक़े शाम-सहर, बरसात की कोशिश करता चल..

गर रात अंधेरी, बगिया तेरी, मुरझाने की चाह करे,
सूरज ख़ुदका चमकाने की, हर रात तू कोशिश करता चल..

जो लगे कभी की औरों को तो बात बिना फल मिलता है,
तू छोड़ मिलाना औरों से, बस अपनी कोशिश करता चल..

बंजर हो धरती दूर-दूर, ना आस उपज की दिखती हो,
तो लहू को अपने खाद बना, नस काट तू कोशिश करता चल..

मल्हार राग के बाद भी गर, सूखा जो दामन रह जाए,
तू अश्कों को दे साँस नई, और बाढ़ की कोशिश करता चल..

ना नज़र गड़ा तू बोतल पर, ना नियत तू रख मयखाने की,
एक जाम पकड़ के हाथों में, दूजे की कोशिश करता चल..

नायाब है वो भी कारीगर, तू भी नायाब नमूना है,
महताब तुझे जो कर जाए, उस रात की कोशिश करता चल..

ना शुरू किया ना ख़त्म करेगा, फिर क्यूँ है इस चक्कर में,
'आदि' भी तू है अंत भी तू, ना सोच तू कोशिश करता चल..

Thursday, February 10, 2011

अब भी ना हम से जाते हैं..



यादों में अक्सर ही उनकी, कुछ ऐसा रम से जाते हैं,
ग़म जाता भी हो हमसे तो, हम ही ना ग़म से जाते हैं..

कभी नाम हमारा गर उनसे, यूँ मौज में ही दे जोड़ कोई,
वो गुस्से से होते तो हम, हो लाल शर्म से जाते हैं..

हासिल की सोच हैं छोड़ चुके, पर फिर भी दिल बहलाने को,
इक झलक को तड़पा करते हैं, इक झलक पे दम से जाते हैं..

वो बेफिक्री से बाहों मे, किसी और की चहका करते हैं,
इक होती हैं दो जान वहाँ, ये सोच ही जम से जाते हैं..

दिल नादाँ अब भी कभी-कभी, फिर लगने की ज़िद करता है,
कुछ ज़ख्म पुराने दुखते हैं और, कदम ये थम से जाते हैं..

अब तो साक़ी भी देख हमें, बस नज़र झुकाया करता है,
मय भी अब आँख चुराती है, मयखाने कम से जाते हैं..

अपनी तो कब्र की मिट्टी से भी , उनकी खुशबू आती है,
हम चले गये दुनिया से पर, अब भी ना हम से जाते हैं..!!

Wednesday, February 9, 2011

कुछ काम बाकी हैं..


कुछ आगाज़ हैं बाकी, तो कुछ अंजाम बाकी हैं,
कैसे थाम लूं अपने कदम, कुछ काम बाकी हैं..

बेकार को तो चाट तलवे मिलते हैं तोहफे सभी,
कुछ काबिलों को मिलने बस ईनाम बाकी हैं..

हो धर्म वो या हो ख़ुदा, हैं सब यहाँ बेचे गये,
माँ की ममता का ही लगना, बस दाम बाकी है..

राम ख़ुद ही हैं यहाँ, लक्ष्मण के मस्तक चीरते,
रावण के फलते फूलते, सर तमाम बाकी हैं..

पहचान जाने सज्जनों की कब से धूमिल हो रही,
इक शैतान का ही होना बस बदनाम बाकी है..

संदेश कायरता भरे तो रोज़ ही हैं गूँजते,
जो दे लहू में ज़लज़ला, पैग़ाम बाकी हैं..

इंसानियत दिल से, बदन से आत्मा है मिट चुकी,
बस मिटने कुछ बलिदानों के अभी नाम बाकी हैं..

कर आस जिसकी हंसके थे, चूमे गये फंदे कभी,
भारत का चढ़ना उस फ़लक, उस मकाम बाकी है..

कुछ आगाज़ बाकी हैं, तो कुछ अंजाम बाकी हैं,
कैसे थाम लूं अपने कदम, कुछ काम बाकी हैं..

Tuesday, February 8, 2011

आज समझ में आता है..



यादों का लम्हा कोई जब आँखों पे छा जाता है,
बातें कितनी भूल चुका मैं, आज समझ में आता है,

वो बाबा का कहना, जब तक घर है समझ ना आएगा,
आँखें सब खुल जाएँगी जब घर से बाहर जाएगा,
अभी तो तुझको सारी बातें खेल ही मालुम पड़ती है,
राहें बड़ी कठिन हैं बेटा, खेल ना तू कर पाएगा..

दुनिया की राहों का जाला जब भी हमें फ़साता है,
बाबा के शब्दों का मतलब, आज समझ में आता है..

छोटी छोटी ग़लती पे जब अम्मा डाँट पिलाती थी,
सिर से ऊँचा हाथ उठाके, प्यार से चपत लगाती थी,
झूठे आँसू आँखो में भर, मन ही मन मैं हंसता था,
धीरे से फिर बाहों में ले, कोई सबक सिखाती थी..

धक्का दे जब कोई मेरे गिरे पे हँसी उड़ाता है,
मेरा गिरना तेरा उठाना, आज समझ में आता है..

बुद्धू बुद्धू कहके कितना मुझे सताया करती थी,
जा चुहिया जब मैं कहता, मुँह ग़ज़ब बनाया करती थी,
ग़लती खुद करती थी लेकिन मार मुझे खिलवती थी,
सब ही ऐसा करते हैं ये भी बतलाया करती थी..

हर कोई जब धोखा दे मुझको आगे बढ़ जाता है,
बुद्धू ही है भाई ये तेरा, आज समझ में आता है..

मुझको राज़ बताना और कहना, माँ को ना बतलाना,
मेरे तोड़े गमले की भी मार तेरा ख़ुद खा जाना,
वो कहना इसको हाथ लगा तो हड्डी-पसली तोड़ूँगा,
उठा-वो डंडा बिन सोचे मेरे झगड़ों में घुस जाना..

आज अकेला कभी तेरा ये छोटू जब घबराता है,
भैया तेरा हाथ पकड़ना, आज समझ में आता है..

रात का हर सपना जब मुझको घर वापस ले जाता है,
आँख सुबह क्यूँ नम मिलती है, आज समझ में आता है..!!

Monday, February 7, 2011

मैं माँ को बहका आया हूँ..


वाह सपूत रे, कितने वर्षों से तू कहता आया यूँ,
देखो फिर से आज सभी, मैं माँ को बहका आया हूँ..

पहले माँ ने अपने तन का हिस्सा तुझे बनाया था,
तब नन्हा सा जिस्म लिए तू इस दुनिया में आया था,
बोल नहीं पाता था, तब भी सारी बात समझती थी,
भूख तेरी सूरत पे पढ़के, गोद में तुझको रखती थी..

भूख नही माँ कहके, अब यारों संग खाते कहता है,
एक मज़े की बात सुनो, मैं माँ को बहका आया हूँ..

रात रात भर जाग के तेरी नींद वो पूरी करती थी,
फिर आँखो में दर्द लिए दिन भर मज़दूरी करती थी,
चोट तुझे गर पहुँचे, आँसू रोक नही वो पाती थी,
एक आह पे तेरी, सरपट दौड़ी दौड़ी आती थी..

अब रात-रात भर जश्न मनाता, यारों से तू कहता है,
तकिये को कंबल में रख, मैं माँ को बहका आया हूँ..

हाथ पकड़ तेरा जिसने तुझको चलना सिखलाया था,
गिरके कैसे उठते हैं ये भी तुझको बतलाया था,
वो कहती थी की बस बेटा, तू राह सही पर ही चलना,
आसान सड़क के लालच में ना ग़लत मोड़ पे तू मुड़ना..

अब नशे में बहके कदम लिए सिर-दर्द बता जा सोता है,
नींद में ख़ुद से कहता है, मैं माँ को बहका आया हूँ..

तेरी हर चाहत पूरी करने को सबसे लड़ती थी,
खेल-खिलौने, लड्डू-टॉफी जो कहता था करती थी,
जोड़े हुए जो पैसे थे, सब तेरे लिए उड़ाती थी,
पैसे पिता की जेब से, लेता तू था डाँट वो खाती थी..

"माँ महेँगाई मार रही अब, भेज ना पैसे पाऊँगा",
बीवी से फिर कहता है, मैं माँ को बहका आया हूँ..

पहुँचे ठेस ना तुझको यूँ-कर तेरी मान तो लेती है,
पर आँखें तेरी देखती है तो सब कुछ जान वो लेती है,
तुझको लगता है रोज़-ही तू, माँ को बहका लेता है, पर
तू कल भी उसका बेटा था तू आज भी उसका बेटा है..

माँ की ममता का तूने तो, अच्छा क़र्ज़ चुकाया है,
सच ही तू कहता है कि, तू माँ को बहका आया है..!!

Sunday, February 6, 2011

मैं कहाँ जाऊं...??


इक बार हुआ यूँ-की, हमें एहसास-ए-ग़म हुआ,
हुमको ख़ुदा तब याद आया, उस-रुख़ कदम हुआ,
पहुँचे सामने रब के, सीना चौड़ा किया हमने,
ली एक साँस लंबी सी और कुछ यूँ कहा हमने,

ए ख़ुदा दिया सबको सब, मुझे कुछ ना दिया तूने,
मुझको फलक की झलक नही, सबको दिया छूने,
मेरा क्या गुनाह था, मेरी हर मेहनत गयी ज़ाया,
ऐसा क्या किया जो मेरे हिस्से ग़म ही ग़म आया,
मुझे जो मिली उस राह पर पत्थर ही पत्थर थे,
क्यूँ मेरी ही तक़दीर में नश्तर ही नश्तर थे,
इतना मिला है ग़म कि कम एहसास होता है,
जिससे भी लगाऊं दिल, उसे कोई ख़ास होता है,
नाशाद लम्हे झील जैसे थम के रहते हैं,
लम्हे हसीं मानो हवा से तेज़ बहते हैं,
या दे ख़ुशी या ग़म को ही पीना सीखा दे तू,
या रोक दे साँसें या फिर जीना सिखा दे तू,

उम्मीद ये थी, वो ख़ुदा है कुछ तो पिघलेगा,
ये तो ज़रा ना थी वो ख़ुद ग़मगीन निकलेगा,
चुप-चाप सुन बातें मेरी धीरे से मुस्काया,
ख़ुदा तो फिर ख़ुदा है देखिए क्या उसने फ़रमाया,

कायनात का हर टुकड़ा बड़े दिल से सजाया था,
बराबर ज़िंदगी-ज़र्रे पे सब कुछ ही लुटाया था,
पर इंसान को मैं दिल के सबसे पास रखता था,
कभी तू दगा ना देगा ये विश्वास रखता था,
समझ दी, जो ख़ुद अपनी सभी तू राहें चुन पाए,
ताक़त दी, फलक से ऊँची जो तक़दीर बुन जाए,
पर ग़म का सबब तेरे लिए हैं और की खुशियाँ,
बुझाती प्यास तेरी हैं तो बस ये ख़ून की नदियाँ,
बनाके तुझको, अपना अक्स तुझमे खोजता था मैं,
ज़मीं को मेरी, जन्नत तू करेगा सोचता था मैं,
मेरी चाह जिसकी थी वो महफ़िल सज नहीं पाई,
बची शैतान से, इंसान से पर बच नहीं पाई,

आबाद की दुनिया मेरी बर्बाद करता है,
ईनाम की फ़िर मुझसे ही फ़रियाद करता है,
मैं ख़ुद ख़ुदा हूँ, अपना ग़म मैं किसको बतलाऊं,
तू दर पे आया है मेरे, पर मैं कहाँ जाऊं...??
मैं कहाँ जाऊं...??

खेल बचपन के...


बस यादों में बाकी हैं बचे, वो खेल बचपन के,
बच्चे फिर से बन पाते तो फिर से वो मज़ा आता..

गुड्डा तने दूल्हा बना, गुड़िया सजी दूल्हन,
सज बारात में जाने का फिर से वो मज़ा आता..

वो लाली गेंद-ताड़ी की, तो विष-अमृत के वो प्याले,
इक्कल कूद, दुक्क्ल फांद जाने का मज़ा आता..

टिप्पी-टॉप में रंगीन कागज़ जेब में रखना,
पोशंपा की जेलें तोड़ पाने का मज़ा आता..

चिल्ला, हम तो तेरी ऊँच पे रोटियाँ पका रहे,
फिर नीच वाले को चिड़ाने का मज़ा आता..

बिजली भागे, और खुशियां मनाना आइस-पाइस की,
माँ के आँचल मे फिर से छुप पाने का मज़ा आता..

कड़कती धूप में दिन भर वो साइकिल खींचना क्रैची,
क़ाग़ज़-नांव बारिश में बहाने का मज़ा आता..

हड्डी टूट गर जाती तो फिर उसको जुड़ा लेते,
कमसकम पेड़ से गिरने का तो, फिर से मज़ा आता..

अब तो याद भी मिटने लगी हैं अपने खेलों की,
किसी को खेलता भी देख पाते, तो मज़ा आता.. !!

माँ...


जो जन्म से पहले ही जी भर कोसी जाती है,
सहके जो सब, सुनके जो ताने रो सी जाती है,
जननी जो सबकी है, जिसे सब जनते डरते हैं,
वो माँ(औरत) देख कर मायूस वो माँ(देवी) हो सी जाती है..

पैदा होने भर से जो शिकन माथे पे लाती है,
जो फिर बात या बिन बात अक्सर मार खाती है,
जो माँ मारती है खाती थी तो ख़ुद भी रोती थी,
वो ही देखो कैसे अपना बचपन भूल जाती है..

स्वयं का पूरा जीवन बोझ ढोते जो बिताती है,
बेल-पाजेब, नथनी-नाथ से जो हांकी जाती है,
जिसका हर कदम हर राह पर डगमग ही पड़ता है,
सही फिर वो चले या हो ग़लत, ताड़ी ही जाती है.

जिसके नाम की गाली हृदय को चीर जाती है,
जो जन्म से मृत्यु तलक ख़ुद गाली खाती है,
पाप क्या है उसका, जानती ये भी नहीं है जो,
पुण्या करती है, फिर भी वो पापिन ही कहाती है..

जो मुस्कान लाती है, जो अश्रू को मिटाती है,
हमेशा देती है जो, ख़ुद कभी जो कुछ ना पाती है,
जिसका अधिकार है नभ, जिसको तिनका भी नहीं मिलता,
वो माँ देख कर मायूस वो माँ हो सी जाती है..

वो माँ देख कर मायूस वो माँ हो सी जाती है..