तेरी आंखों के नशे में, मैं अब भी जीता हूं,
मेरी जाँ, तू तो ये ना पूछ, के क्यूं पीता हूं..
कभी तूने ही निगाहों से, पिलाई थी मुझे,
ये जो आदत है नशे की, ये लगाई थी मुझे,
मैं तब से अब तलक, नशे में ही तो बीता हूं,
मेरी जाँ, तू तो ये ना पूछ, के क्यूं पीता हूं..
शराब रोज़ यूं पीता हूं, के नशा उतरे,
ना हो मुमकिन पूरा, थोड़ा तो ज़रा उतरे,
चढ़ाने को नहीं, उतारने को पीता हूं,
मेरी जाँ, तू तो ये ना पूछ, के क्यूं पीता हूं..
मुझे अब होश में तो, सांस भी नहीं आता,
ना हूं बेहोश, तो एहसास भी नहीं आता,
जो ज़ख़्म तूने दिए, बस उन्ही को सीता हूं,
मेरी जाँ, तू तो ये ना पूछ, के क्यूं पीता हूं..
कोई मतलब नहीं मुझे, सही ग़लत से कोई,
ना तो जीवन से कोई, ना ही कयामत से कोई,
ना तो क़ुरान हूं मैं, और, ना ही गीता हूं,
मेरी जाँ, तू तो ये ना पूछ, के क्यूं पीता हूं..
तेरा भी शुक्र है, तू थी, जो ग़र नहीं होती,
तो मेरी मय, ये मेरी हमसफ़र नहीं होती,
तुझे दुआएं ही देता हूं, जब भी पीता हूं,
मेरी जाँ, तू तो ये ना पूछ, के क्यूं पीता हूं..
तेरी आंखों के नशे में, मैं अब भी जीता हूं,
मेरी जाँ, तू तो ये ना पूछ, के क्यूं पीता हूं..
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteइसको पढ़ने से पाठकों को सुख मिलेगा और हम जैसे तुकबन्दी करने वालों को निश्चितरूप से लिखने की नई ऊर्जा और प्रेरणा भी मिलेगी!
प्रोत्साहन के लिए.. बहुत बहुत धन्यवाद सर.. :)
ReplyDeleteवह शानदार है आदित्य ,,,,पढने में मज़ा आया ....एकदम मस्त ....फ्लो अच्छा है !!
ReplyDeleteShukriya Kuldeep bhai.. :)
ReplyDeletethis is really beautiful and very well written. Loved the expression and depth in it..
ReplyDeletewarm regards and keep up the good work! :)
Thanks a lot Shesha.. :)
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