Wednesday, November 23, 2011

दर्द लफ़्ज़ों में बयां करता हूँ..



मैं-इश्क़ बे-पनाह करता हूँ,
कोई पूछे तो-मना करता हूँ,
आह बातों में छुपा लेता हूँ,
दर्द लफ़्ज़ों में-बयां करता हूँ..

मैं उसकी एक झलक की ख़ातिर,
ना पूछ कितनी दुआ करता हूँ,
वो जिस गली से कभी गुज़री थी,
वहीं कदमों के निशां करता हूँ..

उसकी कसमों को निभाने के लिये,
रोज़ ख़ुद से मैं दग़ा करता हूँ,
वो रहे पास या हो दूर कहीं,
वफ़ा करता था, वफ़ा करता हूँ..

लो आँख बंद की, वो आई नज़र,
यूं फ़ासलों को फना करता हूं,
इश्क़ को साथ ज़रूरी तो नहीं,
साथ करता था, जुदा करता हूं,

आएगी फिर से मेरी किस्मत में,
यही उम्मीद सदा करता हूँ,
वक़्त को तेज़ चलाने के लिये,
चाँद-सूरज को हवा करता हूँ..

कभी जो ऊबता हूँ जीने से,
चंद ज़ख्मों को हरा करता हूँ,
उसकी यादें मिला के सांसों में,
दवा सा फूंक, भरा करता हूँ..

जो उसको बेव़फा बताते हैं,
उन्हे दर से ही दफ़ा करता हूँ,
मैं जानता हूँ उसकी जान हूँ मैं,
उसकी धड़कन में बसा करता हूँ..


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