Thursday, November 17, 2011

क़लम ख़ामोश है..



क़लम ख़ामोश है, कुछ लफ़्ज़ भी नाराज़ बैठे हैं,
ना जाने क्या लिये दिल में, मेरे अल्फाज़ बैठे हैं,
सुबह होने को है, काग़ज़ मग़र कोरा का कोरा है,
ख़यालों के परिंदे, आज बे-परवाज़ बैठे हैं..

ये कोशिश है, के जो लिखूं, कोई ताज़ा तराना हो,
नई सी बात हो कोई, नया कोई फ़साना हो,
नए ज़ख़्मों की ख़ातिर, है बची बाक़ी जगह थोड़ी,
जो हैं उनको भुलाकर, और खाने का बहाना हो..

लो फिर दिल हो चला भारी, उभर कुछ याद आई हैं,
निगाहें भी हुई नम सी, बड़ी मुश्क़िल छुपाई हैं,
नया लिखने को था बैठा, पुराना ही मग़र किस्सा,
के भीगी सी सियाही ने, लकीरें सी बनाई हैं..

"ना कोई एक भी छलके, अदा हो अश्क़ पीने में,
पियाला दिल का भर जाए, मज़ा तब आए जीने में,
जो आँखों से बहे, पानी है वो, आँसू तो बस वो है,
कलम से जो बहे, बस जाए जो काग़ज़ के सीने में.."



3 comments:

  1. क़लम ख़ामोश है, कुछ लफ़्ज़ भी नाराज़ बैठे हैं,
    ना जाने क्या लिये दिल में, मेरे अल्फाज़ बैठे हैं,
    सुबह होने को है, काग़ज़ मग़र कोरा का कोरा है,
    ख़यालों के परिंदे, आज बे-परवाज़ बैठे हैं..

    ये कोशिश है, के जो लिखूं, कोई ताज़ा तराना हो,
    नई सी बात हो कोई, नया कोई फ़साना हो,
    बहुत खूब,बहुत ही सुंदर रचना आप तो कवि हैं, मगर अभी लेखकों का यही हाल होता है कभी-कभी ...सार्थक प्रस्तुति ....बधाई

    ReplyDelete
  2. Bahut sundar. Kaj kal mein bhi likne ki koshish kar rahe hoon. Sab kuch purana sa lagta hai...

    Very charming and vintage:)

    ReplyDelete
  3. Bahut bahut shukirya Pallavi ji, Saru ji.. :)

    ReplyDelete