है-मुसीबत तो-यही बस, के-बात कुछ-भी-नहीं..
कभी लगती है जहन्नुम, कभी जन्नत लेकिन,
सहर का इंतज़ार है ये रात, कुछ भी नहीं..
यूं तो मिलने को रोज़, कितने लोग मिलते हैं,
ना मिलें दिल, तो बस है वारदात, कुछ भी नहीं..
तू घर में हो दाख़िल, जैसे हुआ था दिल में,
ना दर पे दस्तक दे, एहतियात कुछ भी नहीं..
तू अपनी बात कर, ना मुझसे पूछ हाल मेरा,
वजूद ही नहीं जिसका, हालात कुछ भी नहीं..
मैं तो डूबा हूं गुनाहों में सर से पांव, मग़र,
नहीं ऐसा, के तुझपे इल्ज़ामात कुछ भी नहीं..
मज़ा तो तब है, जब के मार के रोए क़ातिल,
नहीं तो क्या हयात, क्या वफ़ात, कुछ भी नहीं..
जो मेरे हाथ से गया, नहीं ग़म है उसका,
सदा रहता नहीं कुछ भी, सबात कुछ भी नहीं..
यूं हर इक हार को, धुंए में उड़ाया 'घायल',
जो मान लूं तो है, नहीं, तो मात कुछ भी नहीं..
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वारदात -- Events/Occurences एहतियात -- Caution
हयात – Life वफ़ात -- Death
सबात -- Stability/Constancy
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जो मेरे हाथ से गया, नहीं ग़म है उसका,
ReplyDeleteसदा रहता नहीं कुछ भी, सबात कुछ भी नहीं..
यूं हर इक हार को, धुंए में उड़ाया 'घायल',
जो मान लूं तो है, नहीं, तो मात कुछ भी नहीं..
बहुत बढ़िया रचना । आभार !
Bahut bahut shukriya Rajneesh ji..
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