वो जब हों सामने, बातें बनाते भी नहीं बनती,
है धड़कन बंद होती, सांस आते भी नहीं बनती..
वो आँखें देख लगता है, यही बस राह जन्नत की,
मगर मुश्क़िल तो यूं, खुदको डुबाते भी नहीं बनती..
तराशा सा बदन इक है बला, पर कांच से नाज़ुक,
करें आगोश क्या, उंगली लगाते भी नहीं बनती..
उन्हे मालूम है कुछ हाल-ए-दिल, ये भी नहीं मालुम,
मगर इनकार के डर से, बताते भी नहीं बनती..
फ़रक ऐसा है क्या यादों में, उनकी और-हमारी के,
उन्हें आती नहीं, तो उनकी जाते भी नहीं बनती..
ख़ुदा है आश़िकों से खेल कैसे खेलता 'घायल',
दिया सब सामने पर, हाथ आते भी नहीं बनती..
bahoot umda
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Wah bhai ...
ReplyDeleteकोमल भावों से सजी ..
ReplyDelete..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती