दिल करता है कि,
कोई कागज़ का छोटा सा टुकड़ा,
कोई उलझा हुआ धागा,
या कोई अजीब सा पत्थर उठाकर,
फिर से पापा की गोदी में बैठकर,
एक ख़ामख़ां का सवाल करूं,
'पापा ये क्या है'..
कोई जवाब अब मुझे इतनी तसल्ली क्यूं नहीं देता..
दिल करता है कि,
फिर भागते-भागते घर में घुसूं,
और सीधा रसोई में जाकर,
कभी कोई सूखा हुआ पत्ता,
जिस पर किसी कीड़े ने,
कोई तस्वीर बनाई हो,
कभी कोई टूटी हुई लकड़ी,
या शीशे की बोतल में बंद किया हुआ,
जुगनू दिखाकर बोलूं,
'मुम्मी देखो मुझे क्या मिला'..
कोई ख़ज़ाना अब मुझे इतनी ख़ुशी क्यूं नहीं देता..
दिल करता है कि,
फिर पापा का हाथ पकड़ कर,
बिना रास्ते के डर के,
बिना मंज़िल की फ़िक्र के,
युंही आधा लटका हुआ,
लहराता हुआ, गाता हुआ,
चलता चला जाऊं..
कोई सहारा अब मुझे इतना यकीं क्यूं नहीं देता..
दिल करता है कि,
कुछ फ़ाल्तू की बकर-बकर करते हुए,
कभी बालों मे हाथ फ़िरवाते हुए,
कभी साड़ी के पल्लू का सिरा चबाते हुए,
उल्टा-सीधा, टेढ़ा-मेढ़ा होकर भी,
गहरी, चैन भरी नींद में,
फिर मम्मी के पेट पर सो जाऊं..
कोई मख़मली बिस्तर अब मेरी रातों को सुकून क्यूं नहीं देता.