Tuesday, May 31, 2011

दिल करता है..


दिल करता है कि,
कोई कागज़ का छोटा सा टुकड़ा,
कोई उलझा हुआ धागा,
या कोई अजीब सा पत्थर उठाकर,
फिर से पापा की गोदी में बैठकर,
एक ख़ामख़ां का सवाल करूं,
'पापा ये क्या है'..

कोई जवाब अब मुझे इतनी तसल्ली क्यूं नहीं देता..

दिल करता है कि,
फिर भागते-भागते घर में घुसूं,
और सीधा रसोई में जाकर,
कभी कोई सूखा हुआ पत्ता,
जिस पर किसी कीड़े ने,
कोई तस्वीर बनाई हो,
कभी कोई टूटी हुई लकड़ी,
या शीशे की बोतल में बंद किया हुआ,
जुगनू दिखाकर बोलूं,
'मुम्मी देखो मुझे क्या मिला'..

कोई ख़ज़ाना अब मुझे इतनी ख़ुशी क्यूं नहीं देता..

दिल करता है कि,
फिर पापा का हाथ पकड़ कर,
बिना रास्ते के डर के,
बिना मंज़िल की फ़िक्र के,
युंही आधा लटका हुआ,
लहराता हुआ, गाता हुआ,
चलता चला जाऊं..

कोई सहारा अब मुझे इतना यकीं क्यूं नहीं देता..

दिल करता है कि,
कुछ फ़ाल्तू की बकर-बकर करते हुए,
कभी बालों मे हाथ फ़िरवाते हुए,
कभी साड़ी के पल्लू का सिरा चबाते हुए,
उल्टा-सीधा, टेढ़ा-मेढ़ा होकर भी,
गहरी, चैन भरी नींद में,
फिर मम्मी के पेट पर सो जाऊं..

कोई मख़मली बिस्तर अब मेरी रातों को सुकून क्यूं नहीं देता.

Saturday, May 28, 2011

ज़ुबां से उनकी, मेरा नाम तो निकले..




इज़हार-ए-इश्क़ फिर है, निकले फिर अंजाम जो निकले,
बहाना है, ज़ुबां से उनकी, मेरा नाम तो निकले..

सुबह होते ही घर से, ये दुआ लेकर निकलता हूं,
बने जो सिर्फ मुझसे, आज उनको काम वो निकले..

ज़ुबां से हर तरह भेजा, मगर ना कान तक पहुंचा,
के पहुंचे दिल तलक, इस दिल से अब पैग़ाम जो निकले..

मैं जमके ठान बैठा था, के उनको भूल जाऊंगा,
हुए पुर्जे इरादों के, वो घर से शाम को निकले..

अभी तक तो कभी मुझपर, नहीं उंगली उठी कोई,
वफ़ा का बेवफ़ा से हो, कोई इल्ज़ाम जो निकले,

बड़ी ज़िल्लत मिली, जब भी हूं गुज़रा उस गली से मैं,
कभी तो हो, के दर मेरा हो और बदनाम वो निकले..

हुआ जो इश्क़ तो भी, और मिला इनकार तो 'घायल',
सुनाया हाल-ए-दिल इक यार को, और जाम दो निकले..!!

Friday, May 27, 2011

शुक्र है..शुक्रवार है..#12




जो आते हैं ये बादल, क्यूं भला दिल सा मचलता है,
क्यूं आती याद है मय, क्यूं ना उस-बिन दिल बहलता है,
हमें तो शक़ है यूं के, बादलों के पर्दे के पीछे,
वो ख़ुद हाथो में लेकर जाम, मस्ती में टहलता हैं..!

Wednesday, May 25, 2011

टूटे सपने..




कभी मन मार लेता हूँ, कभी लगता हूँ रब जपने,
वो अब भी याद आते हैं, मुझे टूटे मेरे सपने..

सभी ने दी सलाह वो काम कर, दिल को मज़ा जो दे,
ख़ुदा से पूछ, करता चल, अगर बस वो रज़ा जो दे,
ये दिल नायाब है, अनमोल हैं ये धड़कनें सारी,
कभी ना काम ऐसा कर, तेरे दिल को सज़ा जो दे..

दिखा के दूर से जन्नत, कदम लूटे मेरे सबने,
वो अब भी याद आते हैं, मुझे टूटे मेरे सपने..

जला के आँख के सपने, कई रातें जगे काटी,
चली जो आरज़ू मेरी पे, वो बंदिश भरी लाठी,
कभी रस्मों ने दुनिया की, कभी झूठे रिवाज़ों ने,
गला घोटा दबी आशाओं का, इच्छा सभी छाँटी..

सरकते रेत से, हाथों से सब छूटे मेरे अपने,
वो अब भी याद आते हैं, मुझे टूटे मेरे सपने..

जलाने ही थे सारे ख़्वाब तो मुझको दिखाए क्यूँ,
गुनाह है जिनपे चलना, रास्ते वो थे सिखाए क्यूँ,
नहीं मालूम था वो ख़्वाब, बस बचपन में ही सच थे,
है अब अफ़सोस ये, जल्दी में लम्हे थे बिताए क्यूँ..

ना तब मालूम था, अरमान-ए-दिल यूं थे मेरे तपने,
वो अब भी याद आते हैं मुझे, टूटे मेरे सपने..

Tuesday, May 24, 2011

इस दिल में..




कुछ याद हैं बाकी इस दिल में, कुछ बात हैं बाकी इस दिल में,
दिल ख़ुद है ख़तम होने को पर, जज़्बात हैं बाकी इस दिल में..

के देख उन्हे फिर धड़का है, फिर सांस भरी है मुश्क़िल में,
आवाज़ भले दबती सी हो, कुछ साज़ हैं बाकी इस दिल में..

वो पाक़ है दिल, ये ख़ाक है दिल, दिक्क़त है बड़ी ही दाखिल में,
है इल्म, नहीं मुमकिन फिर भी, फ़रियाद है बाकी इस दिल में..

दी मौत मगर ना दर्द दिया, कोई और क्या मांगे क़ातिल में,
झूठा ही सही, इक़रार किया, एहसान है बाकी इस दिल में..

इक जाहिल में, इक काहिल में, एक क़ाबिल में, इक बिस्मिल में,
कर कर के टुकड़े राख़ किए, पर आग है बाकी इस दिल में..

परवाज़ थमी, हैं पंख लुटे, ना आस बची है मंज़िल में,
अरमान अभी भी लेकिन कुछ, आज़ाद हैं बाकी इस दिल में..

मझधार को गर साहिल समझो, क्या फ़र्क है कर्म-ओ-हासिल में,
ग़म में खुश रहकर जीने के, कुछ राज़ हैं बाकी इस दिल में..

जब बात चले इस दुनिया की, 'घायल' को-ना रखना शामिल में,
शैतान दिलों की बस्ती में, इंसान है बाकी इस दिल में..!!


********************** 
साज़ -- harmony              ख़ाक -- dirt
दाखिल -- enter              इल्म -- knowledge
जाहिल -- illiterate              काहिल -- lazy
बिस्मिल -- devotee              परवाज़ -- flight

Friday, May 20, 2011

शुक्र है..शुक्रवार है..#11


कब तक झूठी दुनिया की बातों में, यूं ही आओगे,
कब तक सच्चाई से आँखें, यूं हर बार चुराओगे..

जब तक हाल तुम्हारे अच्छे, तब तक है सब ठीक सही,
कब तक किस्मत साथ चलेगी, कब तक चोट न खाओगे..

मेरे हाथ में देख शराब की बोतल, यूं मुँह ना फेरो,
कब तक अमृत के प्याले को, बोलो ज़हर बताओगे..

जितनी देर करोगे, ग़म उतना ही बढ़ता जाएगा,
कब तक 'मय' को ना करके, यूं अपने पाप बढ़ाओगे..

जो इसकी दिल खोल बुराई करते थे, सब पीते हैं,
कब तक इस मानव जीवन को, यूँ बेकार गंवाओगे..

Tuesday, May 17, 2011

ख़ुदा है आश़िकों से खेल कैसे खेलता..


वो जब हों सामने, बातें बनाते भी नहीं बनती,
है धड़कन बंद होती, सांस आते भी नहीं बनती..

वो आँखें देख लगता है, यही बस राह जन्नत की,
मगर मुश्क़िल तो यूं, खुदको डुबाते भी नहीं बनती..

तराशा सा बदन इक है बला, पर कांच से नाज़ुक,
करें आगोश क्या, उंगली लगाते भी नहीं बनती..

उन्हे मालूम है कुछ हाल-ए-दिल, ये भी नहीं मालुम,
मगर इनकार के डर से, बताते भी नहीं बनती..

फ़रक ऐसा है क्या यादों में, उनकी और-हमारी के,
उन्हें आती नहीं, तो उनकी जाते भी नहीं बनती..

ख़ुदा है आश़िकों से खेल कैसे खेलता 'घायल',
दिया सब सामने पर, हाथ आते भी नहीं बनती..

Friday, May 13, 2011

शुक्र है..शुक्रवार है..#10


नहीं जो होश में हासिल, किए बिन ग़ौर मिलता है,
ख़तम एहसास होता है, जो ग़म हर दौर मिलता है,
मज़ा है दर्द का अपना अलग, तो चोट का अपना,
मगर जो है शराबों में, कहीं ना और मिलता है..

Saturday, May 7, 2011

नहीं तुझसा कोई 'घायल'




हुआ था कल बुरा मेरा, मगर कल तो भला होगा,
यकीं बेकार में करके, गया कोई फ़िर छला होगा..

कोई जानी सी पहचानी सी ख़ुशबू, है हवा में फिर,
किसी मासूम ने ताज़ा कोई, सपना तला होगा..

नहीं यूंही मकान-ए-बेवफ़ा में, है शमां रौशन,
कोई तो रूह सुलगी है कहीं, या दिल जला होगा..

वो निकले हैं गली में, सज-संवर कर, चाँद फिर बनकर,
किसी नादान का सूरज समझ का, फिर ढला होगा..

हुए जो इश्क़ में अंधे, दिखी तक़दीर जन्नत सी,
भला मुँह को फिराने से, कभी तूफां टला होगा..

ना जाने हैं हुए कितने क़तल, उनकी निगाहों से,
मगर ये मौत भी ऐसी, के ना मरना खला होगा..

हैं कुछ ऐसे भी मय्यत में, हंसी रोके नहीं रुकती,
नहीं कोई निशां, पर कोई तो खंजर चला होगा..

उतरते देख भी उसको, सुकूं मिलता नहीं है के,
मुझे मालूम है, कल सिर की मेरे फिर बला होगा..

ये मुमकिन ही नहीं, के वो बिना मतलब मदद् कर दें,
नहीं माँ का ये दिल, जो आह सुनते ही गला होगा..

ना मेरे ऐब गिनवाओ, ख़ुदा में कुछ यकीं रखो,
जो है मेरे लिये बेहतर, वही मुझमें डला होगा..

मिले टुकड़ा जो रोटी का तड़पते पेट, तो क़ीमत,
भला क्या भूख समझेगा, जो महलों में पला होगा..

धरम भी है यही, और आज की दुनिया का सच भी है,
जो सबका छीन खाएगा, वही फूला फला होगा..

जुनूं ऐसा चढ़ा हो के, नज़र मंज़िल हो आती बस,
सभी छोड़ेंगे रस्ता, सामने जब ज़लज़ला होगा..

सभी हैं चोट खाए, पर नहीं तुझसा कोई 'घायल',
मज़ा लेने को ज़ख़्मों पे नमक, जो ख़ुद मला होगा.. !!

P.S. : Writing with pen name for the first time, 'घायल'..

Friday, May 6, 2011

शुक्र है..शुक्रवार है..#9


हैं जब नाकाम होती कोशिशें सब, दुख भुलाने की,
तड़पते टूटते ख़्वाबो से, दिल के पार पाने की,
है बस ये ही सहारा देती खुलकर, रूह में घुलकर,
बड़ी आदत पुरानी मय की, ग़म में काम आने की.. !!

Sunday, May 1, 2011

इनकार की रातें..


बहुत ही कम ऐसे ख़ुशनसीब होते हैं, जिन्हे प्यार के बदले प्यार मिल जाता है,
ज़्यादातर तो इकतरफ़ा प्यार को, और इनकार को दिल में दबाए,
जिनसे मोहब्बत है उनसे दूर रहते हुए ही ज़िन्दगी गुज़र जाती है,
लेकिन अगर वो शख़्स जिंदगी के किसी मोड़ पर फिर से आपसे मिल जाय,
तो सारी दबी हुई ख़्वाहिशें फिर से जाग उठती हैं,
और.....



कहूँ क्या किस तरह, किस दौर फिर कर रात निकली है,

कहूँ क्या किस तरह, किस दौर फिर कर रात निकली है,
जिगर जो चीरती है, दिल से फिर वो बात निकली है,
बड़े सालों से था अरमान इक, रखा दबा दिल में,
बुझे शोलों में देती आग, फिर बरसात निकली है..

बुझे शोलों में देती आग, फिर बरसात निकली है..

वही मंज़र पुराना, आँख से नींदें उड़ाने का,
वही बेकार का वादा, उन्हे फिर से भुलाने का,
वो फिर उम्मीद करना, उनके मुँह से हाँ निकलने की,
वही लौटा ज़माना, सच से ले नज़रें चुराने का..

वही लौटा ज़माना, सच से ले नज़रें चुराने का..

धड़कना फिर से दिल का, सोच उनको अपनी किस्मत में,
ख़ुदा से फिर दुआ, और फिर भरोसा उसकी कुदरत में,
वो उनको रास आने के लिये, बर्बाद फिर होना,
वो फिर देना उन्हे दिल, तोड़ना है जिनकी फ़ितरत में..

वो फिर देना उन्हे दिल, तोड़ना है जिनकी फ़ितरत में..

वो टुकड़े जोड़ना फिर, सोचना सब प्यार की बातें,
बड़ी झूठी हैं, ज़ालिम हैं, ये सब बेकार की बातें,
वो मुझको छोड़ फिर से, और से इक़रार कर बैठे,
गुज़ारूं किस तरह मैं, फिर से ये इनकार की रातें..

गुज़ारूं किस तरह मैं, फिर से ये इनकार की रातें..
गुज़ारूं किस तरह मैं, फिर से ये इनकार की रातें..

शुक्र है..शुक्रवार है..#8


हुए दिन कुछ ही, पर लगता है जैसे काल गुज़रे हैं,
सुबह से शाम को तकते भी, जैसे साल गुज़रे हैं,
ख़ुदा ना प्यार, मुझको यार तुम बस 'मय' मेरी दे दो,
ज़माने संग बुरी, 'मय' संग बड़ी खुशहाल गुज़रे है..!!