Tuesday, September 27, 2011

रेत और पानी..


कल एक बनते हुए मकान के बाहर रेत के एक ढेर को देखा,
ऊपर से पानी छिड़क कर गीला किया हुआ था,
कुछ ही देर में धूप से पानी उड़ गया,
रेत सूख गया,
और हवा के थपेड़ों से, रेत के कण उड़कर बिखरने लगे..
ना जाने क्यूं लगा, कि मैं भी उसके जैसा ही हूं,
कई दिनो से मन और मस्तिष्क में बहुत अशांति थी,
कुछ सवाल थे,
जितना जवाब खोजने का प्रयास बढ़ता,
उतनी ही अशांति बढ़ती जाती..
सूखे रेत को उड़ता देख कर,
कुछ जवाब मिले..
मैं भी रेत जैसा ही हूं,
जब तक गीला हूं, इकट्ठा हूं, बंधा हूं, एक हूं..
लेकिन अक्सर ही असफलताओं, ग़मों, तनावों,
ख्वाहिशों और मजबूरियों की धूप से सूख जाता हूं,
और फिर धोखों, बंदिशों, और
सबकी अपेक्षाओं को पूरी करने के दबाव की हवाओं के थपेड़े,
मुझे उड़ाकर इधर-उधर बिखेरने लगते हैं..
ख़ुद पर से विश्वास उठने लगता है,
अपनी क़ाबिलियत, अपनी दृढ़ता, अपना संयम,
सब खो बैठता हूं..
अब सवालों की संख्या घटकर सिर्फ एक रह गई है,
मुझे जरूरत है गीला रहने की,
बंधा, पूरा और एक रहने की,
बिल्कुल उस रेत के ढेर की तरह..
मुझे बस अपना पानी ढूंढना है,
अपना पानी ढूंढना है..

2 comments:

  1. Puri jindagi bayan kar di aapne ... itni asani se aur itne sundar tareeke se.

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  2. bahut sunder dil ke udgar hai..........

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