Wednesday, June 29, 2011

महल हूं ताश के पत्तों का..


युं होके दूर तुझसे, खुश तो मैं भी रह नहीं सकता,
तेरी हिम्मत ना जाए टूट, यूं कर कह नहीं सकता..

तेरी खुशियों की ख़ातिर ही, तेरी आँखों में चुभता हूं,
तुझे खुशियों में झूठे ख़्वाबों की, ग़ुम सह नहीं सकता..

तुझे लगता है तझसे इश्क़ अब बाक़ी नहीं मुझको,
है सच तो ये के, अरमानों में खुलके बह नहीं सकता..

महल हूं ताश के पत्तों का, बस इक ठेस काफ़ी है,
मगर कुछ फ़र्ज़ हैं जो, बिन निभाए ढह नहीं सकता..

6 comments:

  1. तेरी खुशियों की ख़ातिर ही, तेरी आँखों में चुभता हूं,
    तुझे खुशियों में झूठे ख़्वाबों की, ग़ुम सह नहीं सकता..

    सुन्दर भाव.
    सुन्दर रचना......

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  2. सुन्दर रचना,सुन्दर शब्दावलियों से भरी

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  3. matla aur maqta dono behtreen rahe dheron daad

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  4. "तुझे लगता है तझसे इश्क़ अब बाक़ी नहीं मुझको,
    है सच तो ये के, अरमानों में खुलके बह नहीं सकता?

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