नज़र धुंधला सी देती है, जो मेरी आँख नम रह कर,
नज़ारा साफ़ कर देती है, ये मेरी कलम बह कर..
कोई मुझसे भी तो पूछे, यकीं है क्या सिला देता,
ज़हर मलते रहे ज़ख़्मों पे वो, मुझसे मरह्म कह कर..
मैं कहता था वही बसते हैं, रग-रग में, तो हंसते थे,
लहू मेरा बहाया, ख़ुद ही निकले दम-ब-दम बह कर..
वहीं ना जान पाए अहमियत अपनी, मेरे दिल में,
है बाक़ी सबने ही लूटा मुझे, उनकी कसम कह कर..
कोई मेरा बुरा भी कर गया, मैं तो दुआ दूंगा,
कोई क्या पा गया है, बेरहम को बेरहम कह कर..
बदन के हो गए पुर्जे, मगर बढ़ता रहा 'घायल',
मज़ा मंज़िल का बढ़के आया, रस्तों के सितम सह कर..
बेहतरीन शेर दिए है आपने बधाई
ReplyDeleteमैं कहता था वही बसते हैं, रग-रग में, तो हंसते थे,
ReplyDeleteलहू मेरा बहाया, ख़ुद ही निकले दम-ब-दम बह कर..
वहीं ना जान पाए अहमियत अपनी, मेरे दिल में,
है बाक़ी सबने ही लूटा मुझे, उनकी कसम कह कर..
कोई मेरा बुरा भी कर गया, मैं तो दुआ दूंगा,
कोई क्या पा गया है, बेरहम को बेरहम कह कर..
एक से एक बेहतरीन शेर
Bahut Mast Bro
ReplyDeleteमैं कहता था वही बसते हैं, रग-रग में, तो हंसते थे,
ReplyDeleteलहू मेरा बहाया, ख़ुद ही निकले दम-ब-दम बह कर..
रचना की हर पँक्ति दिल को छूती है। शुभकामनायें।