तुम्हारे साथ गुज़रे वक़्त की
यादों भरी गठरी
बड़ा लालच दिलाती है,
मैं अक्सर
रुक नहीं पाता
ज़रा सी गाँठ ढीली कर
पकड़ लेता हूं
पल कोई..
कभी
जब खोलता हूं मैं
बंधी मुट्ठी,
तो इक रंगीन सी तितली
चमकते पंख फ़ैलाए
मेरे कमरे में सतरंगी उजाला छोड़ जाती है,
तुम्हारी झील सी आँखें
तुम्हारी रात सी ज़ुल्फ़ें
तुम्हारा चाँद सा चेहरा
तुम्हारे मुस्कुराते लब,
मेरी बेरंग सी दुनिया में रंगत फूंक देते हैं..
कभी
ये हाथ
गठरी से
निकलने भी नहीं पाता,
हथेली झनझनाती है
लहर सी दौड़ जाती है
सपोला एक ज़हरीला
मुसलसल वार करता है,
जलन का
जिस्म की हर तह तलक एहसास होता है,
पलक गिरने सी लगती हैं
ये धड़कन थम सी जाती है
तो सांसें फड़फड़ाती हैं
मेरी बेरंग सी दुनिया में अन्धेरा सा छाता है..
मैं तितली को
अगर हाथों में भर लूं
कैद कर लूं
तो वहीं दम तोड़ देती है,
अगर आज़ाद रहने दूं तो उड़ के भाग जाती है
वो रंगत लौट जाती है..
सपोला
सरसराता
जा के छुप जाता है कोने में
कभी ढूंढे नहीं मिलता
कभी मारे नहीं मरता,
कई हफ़्तों तलक
सूजन बनी रहती है
आँखों मे..
कई दिन की तड़प के सामने
कुछ पल की रौनक है,
मगर
मैं रुक नहीं पाता,
ज़रा सी गाँठ ढीली कर
पकड़ लेता हूं
पल कोई,
तेरी यादों की
गठरी से...
बहरः हज़ज (1222)