Tuesday, April 14, 2015

मेरे टूटे हुए ख़्वाबों के सिवा भी हैं जहाँ

मेरे टूटे हुए ख़्वाबों के सिवा भी हैं जहाँ,
तेरे रूठे हुए आशिक़ से अलग लोग भी हैं,
मेरे नाकाम मुक़द्दर से बड़े दर्द कई,
तेरे तन्हाई के ज़ख़्मों से जुदा रोग भी हैं..
           
कहीं इक माँ ने हैं थामे हुए सैलाब कई,
के शहादत का मेरे लाल की अपमान हो,
कहीं उस बाप ने बेटी की जली लाश सही,
जो विदाई पे ये कहता था, परेशान हो..

कहीं कोई है जो घर जाने से घबराए है यूं,
हों जागे हुए बच्चे, दो रोटी को कहें,
कहीं सूखे हुए खेतों पे किसानों के जिस्म,
मग़र आँख कोई नम, के यूं पानी बहे..

कहीं मुस्लिम के कटे हाथ पे राखी भी मिली,
किसी हिंदू के जले घर में मुसलमान भी था,
कहीं उस दूधमुंही जान के टुकड़े भी मिले,
जिसे ये भी नहीं मालूम, वो इंसान भी था..

कहीं छुटकी है उलझती हुई झाड़ू से उधर,
है यही डर, के बची धूल, तो फिर ख़ैर नहीं,
कहीं छोटू है इधर चाय के प्याले पकड़े,
कई मीलों का सफ़र रोज़ है, पर सैर नहीं..

तेरे ग़म से भरे दिन की भी भली सूरत है,
मेरी वीरान सी रातों के भी चेहरे हैं जवां,
तेरे रूठे हुए आशिक़ से अलग लोग भी हैं,
मेरे टूटे हुए ख़्वाबों के सिवा भी हैं जहाँ..